Monday 22 November 2010

गढ़वाल समुदाय एक विश्त्रित परिचय

गढ़वाल क्षेत्र

वर्तमान गढ़वाल में बाहरी लोगों के बस जाने के कारण विभिन्न धर्म एवं जाति के लोग रहते हैं। व्यापक रुप में इन्हें निम्नवत् वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. कोल या कोल्ता या डोम

...कोल या कोल्ता को द्रविड़ उत्पत्ति का माना जा सकता है। कोल या कोल्ता लोगों का रंग काला होता है, ये पहले गढ़वाल के जंगलों में रहते थे और वहीं शिकार एवं भोजन की तलाश करते थे। वर्तमान में ये जंगलों को छोटे – छोटे टुकड़ों में काटकर खेती करने लगे हैं और वहीं बस गये हैं। ये दानव, भूत-पिशाच, नाग और नरसिंह की पूजा करते हैं।
ये लोग अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं। परंपरागत रुप से मोची, बढ़ई, झाड़ू मारने वाला, बुनकर, लुहार आदि का काम करते हैं। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद सरकारी सेवा और राजनीति सहित विभिन्न व्यवसायों एवं कार्यों में प्रतिनिधित्व का अच्छा खासा अवसर इन्हें मिला है।
2. राजपूत
गढ़वाल के राजपूतों को आर्य उत्पत्ति का माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग या तो दक्षिण या हिमाचल प्रदेश से सटे भागों से आए, जहां ये लोग कश्मीर के रास्ते हिन्दूकुश से आए। गढ़वाल में बसने वाले राजपूत मुसलमानों/मुगलों के आक्रमण से बचने के लिए राजस्थान से भागकर भी आए हैं। ये लोग उस समय गढ़वाल में रहने वाले कोल, कोल्ता और डॉम से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। शुरु में राजपूतों ने नए तकनीक से कृषि की शुरुआत की। बाद में इन लोगों ने अलग पेशा अपनाया। इन लोगों नें कई राजाओं के सेना में भारी संख्या में प्रवेश लिय़ा।
वर्तमान में राजपूत प्रायः व्यवसायों एवं कार्यों में देखा जा सकता है जैसे- कृषि, व्यवसाय, सरकारी सेवा आदि। कई गढ़वाली राजपूत भारतीय सशस्त्र बल खासकर सेना में भर्ती हैं।
3. ब्राह्मण
ऐसा माना जाता है कि यहां रहने वाले ब्राह्मण पहले पुजारी थे जो मैदानी भाग से आए थे या गढ़वाल के धार्मिक स्थानों को देखने आए थे।
भारत के मैदानी भागों में शासन कर रहे मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचने के लिए राजपूत और ब्राह्मण दोनों गढ़वाल की घाटियों में घुस गए। उन लोगों ने गांव एवं कॉलोनी की स्थापना की और उनका नाम उसी स्थान के आधार पर रखा जहां से वो लोग आए थे। कुछ उदाहरण निम्नांकित है—
अ) अजमेरपट्टी औऱ उदयपुर पट्टी, एवं
आ) तेलंगाना के आधार पर तेलंगी
अन्य स्थितियों में, लोगों ने अपना कुलनाम वही रखा या अपना नाम भी उस स्थान के अनुसार रखा जहां से वो लोग आए थे। कुछ उदाहरण हैं –
अ) मैसूर (कर्नाटक) के आधार पर कर्नाटक औऱ तेलंग एवं
आ) राजस्थान एवं महाराष्ट्र के रावत औऱ जोशी
4. जनजाति
गढ़वाल की जनजातियां ऊपरी भागों में रहती हैं जैसे – उत्तरी प्रदेश। उनमें से कुछ की उत्पत्ति मंगोलिया से है जो खानाबदोश या अर्द्ध-खानाबदोश की तरह जीवन जीते हैं। यद्यपि आजकल इन लोगों ने स्थिर जीवन जीना शुरु कर दिया है और पशुपालन, कृषि, व्यापार एवं अन्य व्यवसायों से जुड़ गया है। गढ़वाल के प्रमुख जनजातियों के नाम निम्नवत् हैं –
अ) जौन्सर-बावर का जौन्सरी
आ) उत्तरकाशी के जाढ़
इ) चमोली के मारचस
ई) वन गुजरभोटिया
भोटिया व्यवसायी एवं पर्वतीय होते हैं। उत्तरांचल के भोटिया के बारे में कहा जाता है कि उनकी उत्पत्ति राजपूत से है जो कुमाऊं एवं गढवाल से आए और ऊंची घाटियों में बस गए। भोटिया तिब्बत सीमा पर पूरब में नेपाल से पश्चिम में उत्तरकाशी तक है।
जो बद्रीनाथ के निकट मानापास और नितिपास के निकट रहते हैं उसे क्रमशः टोलचास औऱ मरचास कहते हैं। उंटाधूरा के पास जोहरी औऱ सौकस रहते हैं। जौहर के दक्षिण में भोटिया या जेठोरा भोटिया हैं जो खेतिहर हैं। भोटिया नंदा देवी, पंचा चुली आदि के शिखर की पूजा करता है और जिनका झुकाव हिन्दूत्व की ओर है, वो गबला (मौसम का देवता), रुनिया और सुनिया देवता (जो पशुओं को बीमारियों से बचाते हैं) और सिधुआ तथा बिधुआ देवता (जो खोये हुए पशुओं को ढूढने में मदद करता है) की पूजा करते हैं।
जाढ़
जाढ़ एक जनजातीय समुदाय है जो उत्तरकाशी जनपद के ठंढे सूखे स्थानों पर रहते हैं। नेलंग एवं जढंग – दोनों गांव लगभग 3400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जाड़े के दिनों मे पूरा समुदाय इस ऊंचे जगह से चले जाते हैं। कुछ परिवार यहीं वापस बस जाते हैं जिन्हें डुंडा कहते हैं जबकि बांकी ऋषिकेश के जंगलों के आसपास चले जाते हैं।
पास सटे हिमाचल प्रदेश एवं उत्तरकाशी के अन्य भागों में बसे लोगों के साथ इस समुदाय के लोगों का बहुत ही अच्छा सामाजिक और आर्थिक संबंध होता है। इस जाति के प्रायः लोग अपने को उच्च जाति के मानते हैं और बुनने का काम कोल पर छोड़ते हैं जिन्हें नीचे जाति का समझा जाता है।
जाढ मंगोल निवासी के लक्षण होते हैं और तिब्बती भाषा बोलते हैं। वो गढवाली और पौरी भी बोलते है।
जौन्सारी
देहरादून के आधा उत्तरी भाग को बावर कहते हैं और वहां रहने वाले लोगों को जौंसारी कहते हैं। वो अपने आप को आर्य का शुद्ध वंशज मानते हैं। इस क्षेत्र का संबंध काफी पुराने संस्कृति से है जो उत्तरी भारत में फैला था खासकर भारतीय इतिहास के वेदिक, महायान, कुषाण और गुप्त काल में।
ये लोग कुछ अलग रीति रिवाज को आज भी मानते हैं जो किसी भी पड़ोसी (गढ़वाल, कुमाऊं, हिमाचल प्रदेश) से अलग है। यहां तक की इनकी वास्तुकला भी अद्वितीय है जिसमें लकडियों का इस्तेमाल बड़े ही आकर्षक रुप में होता है।
जौन्सारी का सबसे प्रमुख उत्सव माघ मेला है। उत्सव के दौरान ये लोग ठल्का या लोहिया पहनते हैं जो एक लंबा कोट होता है। ठंगल चुस्त पायजामे की तरह होता है। दिगवा या टोपी एक पारंपरिक पोशाक है जो सिर पर पहना जाता है, यह ऊन का बना होता है। महिलाएं घागरा, कुरती और धोत पहनती है साथ ही ढेर सारे आभूषण भी पहनती है।
जौन्सारी अब भी बहुपति रिवाज अपनाती है जो महाभारत काल में पांडवों ने किया था जिनके पास एक साझा पत्नी थी द्रौपदी।
वन गुजर
यह खानाबदोश मुस्लिम की एक जनजाति है, इनके बारे में कहा जाता है कि ये लोग सिरमौर की राजकुमारी के दहेज के साथ गढ़वाल आए। ये जनजाति कश्मीर से हिमालय तक , हिमाचल प्रदेश से गढ़वाल तक फैले हैं। वे अभी भी कई उन सांस्कृतिक रश्मों को मानते हैं जो इस्लाम धर्म अपनाने से पहले मानते थे। ये शुद्ध शाकाहारी होते हैं, मुख्यतः अनाजों के साथ दूध के उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं।
ये एक जगह से दुसरे जगह घूमने वाले होते हैं। ये गर्मियों में अपनी भैंस एवं गाय के झुंडों के साथ ऊंची पहाड़ों के चारागाह पर चले जाते हैं और जाड़े में नीचे के जंगलों में वापस चले आते हैं। तीर्थयात्रा वाले मौसम में खपत होनेवाले दूध का बहुत हिस्सा इन्हीं लोगों द्वारा दिया जाता है। ये लोग जंगली विद्या में निपुण होते हैं।
सभी जनजातीय समुदायों के पास जड़ी-बूटी एवं पारंपरिक दवाओं का बहुत ज्यादा ज्ञान होता है। गढ़वाल में रहनेवाले विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के लोगों का प्रतिशत नीचे दिया गया है –
वर्ग
/जाति/सम्प्रदाय
कुल
का प्रतिशत
बाहर
से आया ब्राह्मण
10
खासी
ब्राह्मण
13
ठाकुर
राजपूत
15
खासी
राजपूत
23
कोल
या डोम
25
अन्य
14
कुल
100
गढ़वाल की भाषा
गढ़वाल में बोली जानेवाली सबसे प्रमुख भाषा गढ़वाली है। यह हिमालय के केन्द्रीय पहाड़ी हिस्से में बोली जानी वाली भाषाओं मे एक है। इसी वर्ग की भाषा हिमाचल प्रदेश के पूर्वी भाग और गढवाल में बोली जाती है। इसके अलावा, गढ़वाली के अन्तर्गत कई बोलियां है जो मुख्य भाषा से भिन्न है।
अ) जौन्सार-बाबर औऱ क्षेत्रीय निवासियों की जौन्सारी भाषा
आ) मारचस का मारची या भोटिया बोली
इ) उत्तरकाशी के भागों में जाढ़ी
ई) टेहरी के भागों में सैलानी
बोली पर अन्य भाषाओं का प्रभाव –
गढवाली भाषा इंडो आर्यन भाषा वर्ग के अंतर्गत आता है जबकि उत्तरी भाग में रहने वाला भूटिया तिब्बत-बर्मा वाली भाषा बोलता है जो अन्य गढ़वाली और तिब्बतन बोली के लिए सुबोध नहीं है। गढ़वाली की निकटतम भाषा कुमाउनी या कुमाउनी से सटे पूर्वी पहाड़ी केन्द्रीय उपसमूह है जिसका विस्तार हिमाचल प्रदेश से नेपाल तक है। उत्तरांचल के विभिन्न स्थानों पर कुमाउनी की तरह गढ़वाली में भी कई क्षेत्रीय बोलियां शामिल है। गढ़वाली भाषा के लिए देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है। गढ़वाली के अन्तर्गत कई बोलियां है जो मुख्य भाषा से भिन्न है--- जौन्सार-बाबर औऱ क्षेत्रीय निवासियों की जौन्सारी भाषा --मारचस का मारची या भोटिया बोली --उत्तरकाशी के भागों में जाढ़ी --टेहरी के भागों में सैलानी। गढ़वाली भाषा पर अन्य कई भाषाओं का प्रभाव है।
गढवाल के दक्षिणी भाग में तिब्बत और चीन का भोटिया बोली, संस्कृत या हिन्दी या अन्य हिन्दुस्तानी भाषा बोली जाती है।
गढवाल के पूर्वी भाग में कुमाउनी और नेपाली भाषा बोली जाती है।
हिमाचल प्रदेश से सटे भागों में पश्चिमी पहाड़ी भाषा बोली जाती है।
गढ़वाली भाषा पर इन सभी भाषा एवं बोलियों का प्रभाव देखा जाता है क्योंकि विभिन्न भाषा भाषी के लोग जो एक सीमा से दुसरे सीमा में आवाजाही करते हैं, यहां बस गए हैं। दुसरी तरफ गढ़वाल के निवासी भी उन दुसरे क्षेत्रों में जाते हैं जो वहां की भाषा से प्रभावित हो गए हैं और धीरे-धीरे आपस में हिलमिल गए है।
गढ़वाली की उत्पत्ति
ऐसा माना जाता है कि गढ़वाली की उत्पत्ति निम्नलिखित श्रोतों से हुई है –
अ) सौरसेनी प्राकृत, जो राजस्थानी और बृजभाषा का उद्गम श्रोत भी माना जाता है
आ) पश्चिमी या केन्द्रीय पहाड़ी भाषा
इ) संस्कृत या इसका बदला स्वरुप
ऐतिहासिक वर्णन
गढ़वाल का ऐतिहासिक रिकॉर्ड 6 ठी शताब्दी से उपलब्ध है। कुछ पुराने रिकॉर्ड भी हैं जैसे गोपेश्वर में त्रिशूल, पांडुकेश्वर में ललितसुर। सिरोली में नरवामन लिपि, राजा कंकपाल गढ़वाल के इतिहास औऱ संस्कृति को प्रमाणिक बनाते हैं।
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह भूमि आर्यों की जन्मभूमि है। ऐसा कहा जाता है कि लगभग 300 ई.पू. खासा कश्मीर, नेपाल और कुमाऊं के रास्ते गढ़वाल पर आक्रमण किया। अपनी सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे किला बनाकर रहते थे जिसे गढ़ी कहा जाता था। बाद में खासा स्थानीय शासकों को हराकर किलों पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
खासा के बाद, क्षत्रियों ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया और खासा को परास्त कर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर सैकड़ों किलों को संगठित कर बावन गढ़ी का की स्थापना की। क्षत्रिय के सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल के उत्तरी सीमा पर अपना साम्राज्य स्थापित किया औऱ जोशीमठ में राजधानी की स्थापना की। इस तरह गढ़वाल में कत्युरा राजवंश की नींव पड़ी। उनका साम्राज्य गढ़वाल मे वर्षों तक चला। कत्युरी राजवंश के काल में आदि गुरु शंकराचार्य गढ़वाल का भ्रमण किया और जोशीमठ की स्थापना की जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख पीठों में से एक है। अन्य तीन पीठ द्वारिका, पूरी और श्रृंगरी में स्थापित हैं। उन्होने भगवान बदरीनाथ की प्रतिमा बदरीनाथ में पुनः स्थापित किया। एक कथानक के अनुसार बदरीनाथ की यह प्रतिमा नारद कुंड में छिपा हुआ था।
पं. हरिकृष्ण के अनुसार रातुरी राजा भानुप्रताप गढ़वाल में पंवार राजवंश का प्रथम शासक था जिन्होंने चानपुर-गढ़ी को अपनी राजधानी के रुप में स्थापित किया। गढ़वाल के बावन गढ़ों में यह सबसे शक्तिशाली गढ़ था।
8 सितंबर 1803 के दिन आया विनाशकारी भूकंप ने गढ़वाल राज्य के आर्थिक और प्रशासनिक ढ़ांचा को कमजोर कर दिया। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अमर सिंह थोपा और हैस्टीडल चंतुरिया के नेतृत्व में गोरखा ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। फिर उन लोगों ने आधा गढ़वाल पर अपना आधिपत्य़ जमा लिया। 1804 से 1815 तक यह क्षेत्र गोरखा शासन के अधीन रहा।
पंवार वंश के राजा सुदर्शन शाह ब्रिटिश की सहायता से गोरखों को हराया और राजधानी श्रीनगर सहित अलकनंदा तथा मंदाकिनी के पूर्वी भाग को ब्रिटिश गढ़वाल में मिला दिया। उसी समय से यह क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा औऱ राजधानी श्रीनगर के बदले टेहरी में स्थापित किया गया। शुरु में ब्रिटिश शासकों नें इन क्षेत्रों को देहरादून और सहारनपुर के अंतर्गत रखा लेकिन बाद में ब्रिटिशों ने इस क्षेत्र में एक नए जनपद की स्थापना की जिसका नाम पौरी रखा।

Tuesday 2 November 2010

दीपावली.... दिवाली ...बग्वाल ...


उत्तराखंड देवभूमि के पर्वतीय अंचल में पंचकल्याणी पर्व को मनाने का निराला ही अंदाज
है। यहां दीपोत्सव कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्ल
एकादशी को विराम लेता है। इसीलिए इस त्योहार को इगास-बग्वाल कहा गया। भैलो
परंपरा दीपावली (बड़ी बग्वाल) का मुख्य आकर्षण है।
कार्तिक अमावस्या की रात भैलो (बेलो) खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों
पुरानी है, जिसे अवमूल्यन के इस दौर में भी यत्र-तत्र देखा जा सकता है।
बेलो पेड़ की छाल से तैयार की गई रस्सी को कहते हंै, जिसमें निश्चित अंतराल
पर छिल्ले (चीड़ की लकडि़यां) फंसाई जाती हैं। फिर गांव के सभी लोग किसी
ऊंचे एवं सुरक्षित स्थान पर इकट्ठा होते हैं, जहां पांच से सात की संख्या
में तैयार बेलो में फंसी लकडि़यों के दोनों छोरों पर आग लगा दी जाती है।
फिर ग्रामीण बेलो के दोनों छोर पकड़कर उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए
नृत्य करते हैं। इसे भैलो खेलना कहा जाता है।
इसके पीछे धारणा यह है कि मां लक्ष्मी उनके आरिष्टों का निवारण करें।
आचार्य संतोष खंडूड़ी बताते हैं कि गांव की खुशहाली और सुख-समृद्धि के लिए
बेलो को गांव के चारों ओर भी घुमाया जाता है। कई गांवों में भीमल के
छिल्लों को जलाकर ग्रामीण समूह नृत्य करते हैं। यह भी भैलो का ही एक रूप
है।घर में तरह तरह के पकवान बनते हैं जैसे सवाली और पपड़ी तो मुख्या है फिर खूब नाते रिश्ते दार आते हैं बड़ा ही हर्ष और उल्लाश का वातावरण रहता है इसके अलावा दीपावली पर उरख्याली (ओखली), गंज्याली (धान कूटने का
पारंपरिक यंत्र), धारा-मंगरों, धार, क्षेत्रपाल, ग्राम्य एवं स्थान देवता
की पूजा भी होती है।
इससे पहले धनतेरस पर गाय को अन्न का पहला ग्रास (गो ग्रास) देकर उसकी पूजा
होती है और फिर घर के सभी लोग गऊ पूड़ी का भोजन करते हैं। जबकि, छोटी
बग्वाल (नरक चतुर्दशी) को घर-आंगन की साफ-सफाई कर चौखट (द्वार) की पूजा
होती है। उस पर शुभ-लाभ अथवा स्वास्तिक अंकित किया जाता है। दीपावली का
अगला दिन पड़वा गोव‌र्द्धन पूजा के नाम है। इस दिन प्रकृति के संरक्षण के
निमित्त गो, वृक्ष, पर्वत व नदी की पूजा की जाती है।
बग्वाल के तीसरे दिन पड़ने वाला भैयादूज का पर्व भाई-बहन के स्नेह का
प्रतीक है। भाई इस दिन बहन के घर जाता है और बहन उसका टीका कर उसे मिष्ठान
खिलाती है।और इस दिन को बल्दराज भी कहा जाता है बैलों और गाय के लिए अच्छा सा खाना बनाया जाता है
उनको फूलों की माला पहनाई जाती है उनके पैर धुले जाते है और दिन भर उनकी सेवक की जाती है
यहाँ तक की उनको जंगल में चुगने के लिए भी नहीं ले जाते
कहते हैं कि इस दिन है यमलोक के भी द्वार बंद रहते हैं।
और एक विशेष बात और इकादश के दिन एगाश मनाई जाती है
अमावश के ठीक ११ दिन बाद इसको हम तीसरी दिवाली भी कहते हैं [ सुभ दीपावली ]

Tuesday 28 September 2010

पितृ पक्ष या श्राद्ध ..एक नजर .....



हमारे गढ़वाल में श्राद्ध बहुत ही लगन से मनाये जाती है १६ दिन के श्राद्ध में पूरी रीति, बरजन, पुरे नियम से सभी मानते है ब्राहमण पत्ड़े (पंचांग) देख कर निर्धारित करता था की दादा का श्राद्ध कब आया है और दादी का कब फिर मैं दोड़ा-दोड़ा पंडित जी के घर जाता था और पता कर के आता था फिर सब तैयारियों में लग जाते थे और जिस दिन श्राद्ध आता था बड़े ही उत्साह से हमारी मोज होती थी खाने को खीर पकोड़ी बनती थी घर में सब बरत रखते थे पर मैं नहीं ...
न दादा को देख पाया था और न दादी को बस जो कुछ सुना था माँ और पापा से ही सुना था बस उनकी आँखों के द्वारा वे हमारे मन मंदिर में आज भी हैं कोई तश्वीर नहीं है पर वे विधमान हैं हर साल श्राद्ध में फिर उनकी सारी ,यादें सारे किस्से ताजा हो जाते हैं बस ये श्राद्ध ही है जो हमे उनसे जोड़े हुए है पापा को देख कर लगता था की वे भी अपने पापा के आज बहुत करीब हें उनके मुख मंडल पर एक मुस्कान एक तृप्ति एक संतुष्टि दिखती थी और लगता था आज परिवार में दो और सदश्य जुड़ गए हैं ।
फिर पूजा पाठ के बाद ब्रामण के अनुसार पितरों को भोज दिया जाता था जो की कूड़े [माकन ]की मुंडेर पर रखा जाता है ब्राहमण की विदाई के बाद सब साथ में भोज करते हैं और मुंडेर पर कोवों का जमघट लग जाता था घर में सब लोग खुश की आ गए वो लोग भी खाने ।
एक बात तो बताना भूल हिगाया हमारे गढ़वाल में कागा [कोवा ] को पितृ माना जाता है ना कोई कभी कोवा को मरता है और ना उडाता है बल्कि जब आँगन में आता है तो उसे कुछ ना कुछ खाने को दिया जाता है
घर में मेहमान और किसी के आने की खबर भी sअबसे पहले वही लाता है आज भी ......

Saturday 4 September 2010

झंगोरा ......(गढ़वाल का चावल )

आज आपलोगों को झंगोरे की भरपूर जानकारी देने की कोसिस करूँगा
ललित भाईजी आप ने पिछली टिपण्णी में कहाथा की उसे चावल की तरह पकाते है तो वो ये आनाज है ।
रोटी बना कर खाने वाला कोदा दूसरा आनाज है
और सही बात है की सुगर के मरीजों को इसी को खाने की राय दी जाती है
और जब दिल्ली रहता था तो पता चला इस कों सांवा के चावल के नाम से लोग जानते है ....
और स्पेसली ब्रत में इसको पका के खाते है ।
ये हमारे गढ़वाल का मुख्य आहार है बस यूँ समझ लीजिये की गढ़वाल का चावल है इसके पीछे कई कारन हैं । गढ़वाल का मोसम इसकी खेती के लिए बहुत अनुकूल है इसकी उपज बहुत होती है सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती सुखी खेती होती है आपको बतादूँ की गढ़वाल में कुछ धान ऐसी भी है जिसकी सुखी खेती होती है तो झंगोरे को इसी के साथ बोया जाता है
आप को आश्चर्य होगा की खेत जहाँ पर उपजाऊ नहीं है या पथरीला है, खेत के किनारों पर झंगोरा बो देते है अच्छी अच्छी जगह पर धान बोते हैं ।
पर होते समय झंगोरा जादा होता है धान कम .......
इसकी खेती अप्रैल में बुआई और सितंबर लास्ट में कटाई होती है ....
और हाँ इस बात का जिक्र जरूर करूँगा की इसे भी कोदे की तरह सेत करने रख देते हैं फिर सर्दियों में कूटते है खलिहान में या तो बैलों को घुमाते है या लाठों से कूटते हैं ।


अभी आप देख रहे है की दूसरा अनाज

....कोणी ...

ये भी झंगोरे की ही प्रजाति है । ....
और ये अनाज सदियों से सिर्फ खिचड़ी के लिए ही मशहूर है, खिचड़ी के लिए ही उगाया जाता है ...और इसकी खिचड़ी ही बन सकती है .....
वीमार लोगों के लिए इसकी खड़ी राम बाण (औषधि ) सिद्ध होती है । .......
झंगोरे का दाना छिक्कल के साथ ग्रे रंग का और कूटने पर सफ़ेद होता है और कोणी का दाना पीला होता है .....

मेरी पिछली पोस्ट (कुछ नाम सुनते ही मुह में पाणी आ जाता है ....) आप ने पढ़ी ना हो तो
आप कों बाता दूँ की मेरी जानकारी में झंगोरे से जो व्यंजन बनते है ये हैं । .....
१ ...झंगोरू ...(चावल की तरह )
२ ... छेंछेड़ू (एक ला जवाब व्यंजन)
३ ...मीठी खीर (दूध के साथ )
४ ... कोणी की खिचड़ी के बारे में तो आप जान ही चुके हैं ....

अब कविता दीदी के शब्दों में कहूँ तो कोणी की खिचड़ी से स्वाद रोटी में होता ही पर मुझे मोका नहीं मिला खाने का आप को मिले तो जरूर खायियेगा ।

Friday 3 September 2010

मंडूवा या कोदा या कोदू ...

आगे बढ़ने से पहले मैं अपने पिछले पाठकों के प्रश्नों का उतर दूँ यही मुनासिब रहेगा क्योकि आप की जिज्ञासा ही मेरी लेखनी की ताकत है
तो मंडूवे की रोटी तो आप लोगों ने देख ली और इसका स्वाद आप मेरी भावनाओं के जरिये ले सकते है मंडूवा या गढ़वाली में कोदा एक ही बात है अप्रवासी गढ़वाली बच्चों को गर्मियों की छुट्टी में मटकते हुए कहते सुना की "दादी एक मंडूये की रोटी देना .....! बस तब से मैं भी यही जनता हूँ की हिंदी में लोग इसे मंडूवा कहते हैं
बहुत ही सादा और गढ़वाल का मुख्य अनाज है इसका दाना राइ के दाने की तरह होता है (किन्तु थोडा सा चमकीला और बारीक लाली लिए हुए ) पीसने पर हलके काले रंग का आटा होता है और उपयोग बिलकुल गेहूं के आटे की तरह होता है ......रोटियां बनती हैं, प्रसाद बनता है {(हलुवा....हिंदी में)या (बाड़ी ...गढ़वाली में)}बहुत ही स्वादिस्ट !!!
यूँ कहूं की जब गढ़वाल में लोग कुछ नहीं जानते थे तब हर गाँव के हर घर में हर सुबह, दोपहर और स्याम कोदा और झंगोरा दोनों में से क्या पकाना है तय होता था और सब्जी दाल तो अलग से बने गी ही .......
गेहूं का बिकल्प कोदा और चावल का बिकल्प झंगोरा यही गढ़वाल का सत्य है ........
आज दुकाने है, गेहूं है, चावल है, सड़कें हैं याता-यात के साधन हैं ......
पापा बताते हैं की ऋषिकेश तक का पैदल मार्ग था एक बार जाने में ३ दिन लगते थे और सामान जादा है तो ४ दिन ...... जो की हमारे घर से आज १०५ किलो मीटर है (बस से )
और लेन वाला सामान ऋषिकेश से था नमक,गुड , और चाय पत्ति बाकि सब खेती से होता था ...

गढ़वाल में खेती की हो या सिंचाई की हो कोई भी कृत्रिम विधि उपयोग करना बहुत मुस्किल है बस सब बर्षा के पाणी पर ही निर्भर है
अब रही कोदा की खेती की बात तो बिलकुल आसन है और विचित्र भी...वो इस लिए की जब बुताई के समय बाकि और फसलों के लिए खेत की नमी का विशेष ध्यान रखा जाता है तो कोदा के खेत में इतनी धुल उडती है की ना बैल दीखते है और ना ही आदमी ...सारा सशीर धुल से लत पत ...........मुझे बड़ा मजा आता था
इसकी बूआई जून में और कटाई नोवेंबर मध्य में होती है ५ महीने में फसल तैयार और फिर इसे काट के सीधे स्टोर (सेत) कर दिया जाता है और फिर सर्दियों में फुर्सत से इसको छांटा जाता है क्योंकि ठीक उसी समय दूसरी फसलें जैसे धान की, उरद दाल की, चोलाई की, सोयाबीन की, और सु प्रसिद्ध झंगोरा की भी पक के तैयार हो जाती हैं ....
और जाते जाते विश्वाश दिलाता हूँ की जब गाँव जाऊंगा तो आप सभी पोस्टों को मेरे खुद के चित्रों से सुसोभित पावोगे फरवरी में आ रहाहूँ इंडिया ......
झंगोरा के विषय में अगली पोस्ट में विस्तार से बताऊंगा ........
पढना ना भूलियेगा .........

Tuesday 31 August 2010

वो मंडूये की रोटी का स्वाद ....

आज आपके साथ मैं जो बाँटने जा रहा हूँ बहुत प्यारा विषय है । यूँ तो हमारा पहाड़ हमारा गढ़वाल की दुनिया एक अलग दुनिया है वहां हर चीज अलग है वहां का समाज अलग है वहां की सोच अलग है ।
दुनिया आगे निकल गई है या हम पीछे छूट गए है लेकिन हम जहाँ है जीवन की असुविधाएं तो हैं पर अपार आनंद भी है
कभी कभी मनसोचता है की हम पीछे नहीं छूटे दुनियां भटक गयी है मृग तृष्णा में .... या कुछ और ......
माँ के हाथ की चूले में बनायीं वो मंडूये की रोटी का स्वाद आज भी मुह में बरकरार है ताज़ी खाओ तो किसी पॉँच सितारा होटल की महँगी से महँगी मुफ्फिन से कम नहीं और रात भर टोकरे (ठोफरे) में सूख के सुबह चाय के साथ खाओ तो किसी चोकोलेट बिस्कुट से कम नहीं ....


हां ये बात बताना तो भूल ही गया है हम लोग गर्मियों में सुबह नास्ता और दिन में लंच करते हैं किन्तु सर्दियों में बिलकुल अलग ही रिवाज है सुबह उठते ही खाना बनना सुरु हो जाता है.. दाल - भात ,सब्जी पूरा खाना खा के ही लोग घरों से काम के लिए निकलते हैं सर्दियों में दिन में धूप कम होती है तो खेत में काम ३-४ बजे तक आराम से कर सकते है और फिर दोपहर में चाय के साथ नास्ता होता है ...... मजेदार . कभी आलू और अरबी के छोले तो कभी चटनी के साथ मंडूये की रोटी .....क्या स्वाद कभी ना भूलने वाला ..


जब माँ पुदीने, प्याज, और अंगारों में भुने हुए बारीक टमाटरों की चटनी मंदुये की रोटी में रख के देती थी तो ३-४ बार की चटनी ख़तम हो जाती थी पर मन नहीं भरता था .....




Thursday 19 August 2010

गढ़वाल की तीन कठिन और मुख्य जरूरतें ...घास, लकड़ी, पानी...

और ये हैं
सरकार के द्वारा बनाये हुए पानी के हैण्ड पम्प
हर सड़क पर १००- २०० मीटर की दूरी पर बनाये गए हैं ...
जो की खुसी की बात है .....

ये इक प्यारा सा प्राकृतिक जल श्रोत ....
अक्सर ये नज़ारे गढ़वाल के हर गाँव के बाहर देखने को मिलते हैं ....
दिल खुस हो जाता है ...ये सब देख कर ..

यहाँ पर इक गढ़वाली दुल्हन कुएं से पानी भरती हुई

यहाँ पर एक प्राकृतिक जल श्रोत ....एंट और गारे से सुविधाजनक बनाया गया है पर पानी बहुत कम है....
और सबसे खास और अहम् जरूरत है पानी ....
गढ़वाल में पानी की समस्या बहुत ही विकत है कोसों दूर जाना पड़ता है पानी के लिए....
घंटों इन्तजार करना पड़ता है कहीं मूल से पानी इतना कम निकलता है की क्या बताएं
अभी सड़क से जुड़े हुए गाँव में हैण्ड पम्प लगवाने से काफी राहत मिलिहै किन्तु जहाँ से सड़क ही कोसों दूर है वहां की समस्या कैसे हल हो

और घरों में तब गैस भी नहीं हुआ करती थी बल्कि गढ़वाल के गाँव में आज भी लगभग ८०% घरों में चूल्हा ही जलता है और जंगल से लकड़ियाँ चाहे सूखी हो या कच्ची लकड़ियाँ लानी पड़ती हैं रविबार को स्कूल की छुट्टी होने के कारन घर का हर लड़का लड़की जंगल से लकड़ियाँ लाते हैं और सर्दियों के समय तो कभी कभी पूरा परिवार जाता है ताकि काफी दिनों के लिए एक साथ ला सकें और जरूरत के हिसाब से कभी कभी तो घास और लकड़ी दोनों लानी पड़ती हैं




यहाँ पर घास लाती कुछ महिलाएं/पुरुष मीलों दूर से पीठ में लाद के जानवरों के लिए घास लाना पड़ता है और ये कभी कभी नहीं हर रोज दिन की मुख्य दिनचर्या है ...जरूरत के हिसाब से परिवार में हर कोई लता है मैंने भी बचपन में बहुत घास कटा है ......

Tuesday 17 August 2010

गढ़वाली जीवन का चित्रित बर्णन...


आज मैं यहाँ कुछ और तस्वीरों के साथ उपस्थित हुआ हूँ ये हमारे गढ़वाल का सबसे प्रचलित ग्रह उद्योग है ,मधुमाखी पालन
हर गाँव के हर मकान के हर घर के हर कमरे में ये खाना स्पेसल बनाया जाता था मकान बनाते समय
ताकि बाद में कोई परेसानी ना हो
किन्तु जब से पुराने मकान टूटने सुरु हुए और लोगों ने सीमेंट और गारे से मकान बनाने सुरु किये इनकी संख्या भी बाड़ी तेजी से घटी है और आज मधुमख्ही पालन का अस्तित्वा खतरे मैं है
और सबसे विच्त्र बात है सहाद निकलने का तरीका जिस दिन ये कार्य संपन्न होता है बड़ा गरमा-गर्मी का माहोल रहता है घर में मैंने भी पापा के साथ मिलके बहुत सहाद निकला है


ये गाँव की पंचायत का एक प्रया दृश्य है
क्या मधुर वार्तालाप होता है
गरमा गर्मी भी होती है मुधों पर


ये हैं हमारे गढ़वाली की शान हमारे गढ़वाली वीर फोजी भाई

लगभग ३०% लोग यहाँ आर्मी में है घर में खेती बाड़ी भी जोरों के साथ होती है

देश रक्षा के साथ साथ घर की जिमेदारियां भी बखूबी निभाई जाती हैं यह

फोजी भाई विना बर्दी उतारे ही प्याज के खेत में पहुंचे हुए है

इससे बाड़ी मिसाल मैं क्या दूँ .....











Tuesday 27 July 2010

कुछ नाम..... सुनते ही मुह में पानी आ जाता है.....

Rice, biryani, and similar dishes.....

झागोरू
भात
मिठु भात
ग्यों कि खिचड़ी
आलू गोबी कि खिचड़ी
चोंलू कु छेंछेडू
झंगोरा कु छेंछेडू

Breads……………..plain, roasted, stuffed, & deep fried……………
प्याज की लगड़ी
पलिंगे की लगड़ी
मेथी की लगड़ी
ग्यों की रोटी
कोदा की रोटी
धबाड़ी रोटी
दुजाल्या रोटी
पणभीजी रोटी
भरीं रोटी
एकाद्या रोटी
स्वाली
जौ कु सत्तू
Starters………..sweet, spicy……..testy & delicious …..You never ate before….
गुजिया
आटा कु प्रसाद
आरसा
मरसा का पत्युड
पिंडालू का पत्युड
खरबूजा का दमफू
गत्हू का पटुन्गा
रुताना
पकोड़ी
जलेबी
चोंलू की पपड़ी
भुज्यं कला भट्ट
भुज्यों मर्सू
मार्स का लड्डू
बुखना
दाली का पकोड़ा
आलू का छोला
पिंडालू का छोला
Salads……………………..so yammiiiiiiii
तिमलों की खटाई
लिम्म्बों की खटाई
मलता की खटाई
शकीना कि खटाई
Main course ……………….wonder full…..testy, delicious & authentic
बाड़ी
फानू
पालिओ
रैठु
रेलू
बड्यों कु साग
दाली कु चेंस्वाणी
कंडाली कु साग
घत्वानी
पलिंगा की कफिली
राइ की कफिली
कफुलू कु कफुल्वानी
राइ कु साग
मूंगी कु इक्वान्याँ
आमू कु आमुल्वान्याँ
तुन्गुलों कि भुजी
गुरियल का कस्लों कि भुज्जी

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ये कुछ गढ़वाली खाना के नाम ही जो कि मैं और मेरे भाइयों/दोस्तों ने बड़ी मेहनत से ढूंढे हें आगे मैं इनके बारे में आप को विस्तृत जानकारी देता रहूँगा
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गढ़वाली जीवन (2) खान-पान

हमारी भाषा कि तरह हमारा खान पान भी बहुत ही विखर हुआ है लोग जहाँ जहाँ से आये अपने साथ अपना सारा भेष भूषा खान पान के तोर तरीके लाये और यहाँ आके आपस में ऐसे मिले ऐसे मिले कि कुछ अंदाजा नहीं लगा सकते प्रकृति के हिसाब से कुछ नए चीजों का, कुछ नए खान पान का भी जन्म हुआ पर मुझे मालूम नहीं आगे भविष्य में जरूर इस विषय पर चर्चा जारी रखूँगा गढ़वाली सभ्यता विलुप्त होने के कगार पर है ! अपने घर से सुरु होकर जब मैंने पाया की आज से २० साल पहले हमारे घर में जो खाना बनता था आज बहुत ही भिन्न है इसी लिए कुछ पुराने खाने को धुन्ड़ता टटोलता आप लोगों से रु बरु हो रहा हूँ मेरे बहुत सारे दोस्तों /भाइयों ने मेरी काफी मदद की है जिनमे सत्येंदर भंडारी ,कुकरेती जी,डी .डी. भाई , धनवीर भाई ,रणजीत भाई ,ललित भाई, महिपाल सिंह etc...

हिंदी के प्रभाव से बिलुप्त प्यारे शब्द ......

हमारी भाषा हिंदी भाषा से बहुत ही प्रभावित है खुसी भी होती है जब गाँव की ताऊ ताया टूटी फूटी हिंदी बोल के अपनी बात का प्रभाव ज़माने की कोशिस करते है तो बहुत ही अच्छा लगता है
और हाँ एक शब्द है "बल" कोई हिंदी बोले या गढ़वालीजब तक ये शब्द नहीं जोड़ते वाक्य पूरा नहीं होता ये गढ़वाली भाषा का बहुत मुख्या शब्द है हर वाक्य से पहले या बाद में "बल" नहीं लगाया तो गढ़वाली भाषा पूरी नहीं होती
कुछ गढ़वाली शब्द जिनके मुह से निकलते ही शारीर में झर झरी सी दोड़ जाती है ---

"तू"
घर , गाँव, मोहल्ले का कोई भी रिश्ता हो, कोई कितना भी बृध, कोई कितना भी बच्चा हो "तू" कहा कर पुकारते ही सारी दूरियां पल में ही सिमट जाती है दिल में एक अजीव सा अपना पन उभर आता है बहुत ही कर्ण प्रिय और भावुक शब्द हैं .....
" हला बाबा तू मैतेन पेंसिल नी लायें आज
माँ-ली तू खाणु नी दयानी मैतेन मैं बिजान भूका लगीं ,मैं अफ़ी गाड़ी दयां हां "
जब बचपन के ये मासूम से वाक्य आज भी मानस पटल पर उभरते हें तो इनकी आवाज मुझे दूर कहीं दूर से भी लाके घर के आँगन में पटक देती हें ....!!!!

परिचय ...गढ़वाली जीवन (1) भाषा

यहाँ मैं आप लोगों को गढ़वाली भाषा के बारे में जहाँ तक हो सकेगा पूरी पूरी जानकारी देने कि कोसिस करूँगा
सबसे पहले एक छोटी सी नजर गढ़वाल के विकास के इतिहास पर गढ़वाल कोई बहुत पुराणी सभ्यता नहीं है, मुझे याद नहीं या मालूम नहीं गढ़वाल के इतिहास को उठा के देखो तो गढ़वाली सभ्यता का आरम्भ तब सुरु हुआ था जब पश्चिम से मुग़ल शासकों का हिंदुस्तान पर आक्रमण होना सुरु हुआ था तब उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेशों से लोग पलायन करते हुए हिमालय कि पहाड़ियों पर बसना सुरु हुए ये बहुत ही सुरक्षित स्थान था क्यों कि हिमालय इसकी ढाल बन कर हमेसा ही रक्षा के लिए तत्पर था फिर कुछ लोग राजस्थान से कुछ पंजाब से कुछ सिंध से कुछ हिमाचल से और कुछ कश्मीर से पूर्बी उत्तराखंड तो जो कि कुमाऊ मंडल है नेपाल तिब्बत और उत्तर प्रदेश से लोग आ कर बसे है हमारा गढ़वाल कोई बहुत पुराना नहीं है ना ही हमारे पास हमारी कोई लिखित भाषा है और ना ही कोई एक निश्चित बोली यहाँ पर कदम कदम पर भाषा बदलती है और कदम कदम पर भूसा तभी तो गढ़वाली में एक कहावत भी मशरूर है "चार कदम पर भाषा बदले और आठ कदम पर भेस" हमारे यहाँ कोई शब्द पंजाबी से कुछ शब्द राजस्थानी से तो कुछ नेपाली से मिलते है
मूल रूप से हमारा उत्तरांचल गढ़वाल और कुमाऊ मंडल से मिल के बना है और भाषा का अंतर सबसे जादा यहीं से सुरु होता है गढ़वाल मंडल में गढ़वाली और कुमाऊ में कुमौनी दो मुख्या भाषाएँ ही दृश्य हें किन्तु अगर थोडा और गहरे में जाएँ तो गढ़वाल में ५ जिले है और हर जिले में भाषा भिन्न भिन्न है और यही स्थिती कुमाऊ में भी है तो लगभग १०-१२ भाषाएँ हमारे उत्तरांचल में बोली जाती हें हर ५० -७० मील में भाषा का बहुत अंतर है

Friday 23 July 2010

गढ़वाल में धान की रोपाई

सबसे बाड़ी बात ये है हमारे गढ़वाल में कि मशीनरी का उपयोग बहुत ही मुस्किल से कर सकते है खेती में जो कुछ है बस खून पसीने की कमाई है वक़्त कम पड़ जाता है पर काम ख़तम नहीं होते फिर रातें चुराओ ! है ना अजीब जिद्दो-जहद, पर जो कुछ है बहुत खूबसूरत है
हमारे गढ़वाल मी धान की रोपाई की खेती बड़े जोरों से होती है जून जुलाई का मोसम हर गाँव में खूब चहल कदमी का होता है हर गाँव में लोग घरों में कम खेतों में ही मिलते है सारा गाँव सामूहिक तरीके से परिवार दर परिवार रोपाई करता है बस मेला लगा रहता है पहले गधेरों में पानी भी बहुत होता था बरसा के पानी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था पर अब बहुत ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है ये बहुत ही सकून देना वाला द्रिश्य होता है जब दूर दूर तक लोग ही लोग नजर आते है मेरे शब्द भी कम हैं एस मनोहारी द्रिशांत का बर्णन करने के लिए ........!!!

Thursday 22 July 2010

आँगन की सान...... ओखली (उर्ख्यालू)

ओखली हर परिवार , हर घर के आँगन मी होती थी अब तो कुछ ही घर होंगे जिनके आँगन इस से सजे होंगे ओखली का हमारे गढ़वाली जीवन मी आदि काल से बहुत ही महत्वा रहा है जब चक्की नहीं हुआ करती थी तो धान, मंडुआ ,मसाले कुछ भी पावडर बनाना या छिलका निकलनाआदि काम इसी के द्वारा संपन होते थे यहाँ पर एक महिला हल्दी का पावडर बना रही हें

गढ़वाली रसोई

ये हमारे गढ़वाल की एक आदर्श रसोई है आज भले ही भले ही तरह -तरह के गैस स्टोव, बिजली के स्टोव, गोवर गैस स्टोव आदि खाना पकाने के कई साधन मोजूद हैं पर लकड़ी जला के चूले में खाना पकाना सदियों से चला आ रहा है यहाँ पर भी एक ग्रामीण महिला रोटियां पका रहीं हैं
और बिना स्कूल की बर्दी उतारे सीधे रसोई में खाना ढूढ़ना बाल जीवन का एक स्वाभाविक प्रविर्ति है और तो क्या बताऊँ पर मेरा बचपन कुछ यूँ ही गुजरा है आज भी जब वो दिन याद आते है तो आँखें छल- छला आती है कहाँ से लाऊ वो दिन फिर से .......!!!!

Monday 19 July 2010

नारियल का हुक्का

गाँव में ताऊ ताई दादा दादी सभी लोग पीते थे ( हम खुद पीते थे पर छुप-छुप के) अब कोई नहीं पीता गाँव में स्याम को अक्सर लोग चोपाल में, किसी के आँगन में कछाड़ी लगा गप्पे मारते और धुआं उड़ाते थे काम के साथ -२ भी तम्भाकू का मजा लेते थे

नारियल का हुक्का और घर के तम्भाकू की बात ही कुछ और है बचपन में ये सब्द हमारे कानो में अक्सर पड़ते थे बाबा (पापा)भी पीते थे और मैंने उनके लिए बहुत तम्भाकू बना बना के दिया है हमारे घर में एक नारियल का एक कांसे का हुक्का था सबसे बुरा तब लगता था जब उनको रखने के लिए घर में कोना ढुंडना पड़ता फिर बाबा एक हुक्का लाये जिसको कहीं भी रखो गिरता नहीं था सबसे जादा खुस मै था जब भी बाबा को तम्भाकू बना के देता १-२ सुट्टे तो मैं भी मारता था अंगारे सुलगाने थे ना !!!





बहुत पीसा है मैंने माँ के साथ जब मैंने होस संभाला है तो हमारे घर में ३ थी जो हलकी वाली थी उसमे डाले दलते थे और हम आसानी से घुमा भी सकते थे तो तो मैं और मेरा भाई एक दुसरे को बारी बारी से घुमाते भी थे खूब खेलते थे बड़ा मजा आता था कभी माँ आता पीसने बैठती थी तो माँ के हाथ से हाथ मिला कर २ मिनट के लिए जोर से घुमाते और फिर थक जाते माँ कहती हटो रे बच्चों क्यों परेशान कर रहे हो पर वो तो हमारे खेलने का खिलौना था पर अब कहीं नहीं दिखता मैं भी जब घर जाता हूँ तो मुझसे सिकायत भरी नजरों से घूरता रहता है मुझे पर मैं क्या करूँ जब वो दिन याद आते हें तो उसकी गग्राट से ही अक्सर हमारी नीद खुलती थी कितनी कथनी के दिन थे गाँव में अक्सर कूटने पीसने का काम रात को ही होता था बाकि दिन में तो और भी खेतों के काम होते थे

आटा पीसने की चक्की है (घट्ट)


ये धरोहर अब लुप्त होती जा रही हैं ..... ये पानी द्वारा चलने वाली आटा पीसने की चक्की है (घट्ट)४ -६ गाँव में १-२ घट्ट होते ही थे ...पर न अब पानी के नाले (गधेरे) रहे और न घट्ट .... रात रात भर घट्ट में रहना पड़ता था अपनी बरी आने के लिए दादी कहती थीं क्यों की दिन में तो काम होता था बहुत बस वहीँ पे खाना लेके जाओ खाओ और वही पर चादर बीचा के सो जाओ
पहले diesel engine की चक्की आई और अब बिजली की धीरे धीरे खेती से कुछ ना होने के कारन उनकी जरूरत भी ख़त्म होती जा रही है बस अब दुकान से ही सीधे आता चावल लाओ पकाओ और खाओ.......