Tuesday 27 July 2010

कुछ नाम..... सुनते ही मुह में पानी आ जाता है.....

Rice, biryani, and similar dishes.....

झागोरू
भात
मिठु भात
ग्यों कि खिचड़ी
आलू गोबी कि खिचड़ी
चोंलू कु छेंछेडू
झंगोरा कु छेंछेडू

Breads……………..plain, roasted, stuffed, & deep fried……………
प्याज की लगड़ी
पलिंगे की लगड़ी
मेथी की लगड़ी
ग्यों की रोटी
कोदा की रोटी
धबाड़ी रोटी
दुजाल्या रोटी
पणभीजी रोटी
भरीं रोटी
एकाद्या रोटी
स्वाली
जौ कु सत्तू
Starters………..sweet, spicy……..testy & delicious …..You never ate before….
गुजिया
आटा कु प्रसाद
आरसा
मरसा का पत्युड
पिंडालू का पत्युड
खरबूजा का दमफू
गत्हू का पटुन्गा
रुताना
पकोड़ी
जलेबी
चोंलू की पपड़ी
भुज्यं कला भट्ट
भुज्यों मर्सू
मार्स का लड्डू
बुखना
दाली का पकोड़ा
आलू का छोला
पिंडालू का छोला
Salads……………………..so yammiiiiiiii
तिमलों की खटाई
लिम्म्बों की खटाई
मलता की खटाई
शकीना कि खटाई
Main course ……………….wonder full…..testy, delicious & authentic
बाड़ी
फानू
पालिओ
रैठु
रेलू
बड्यों कु साग
दाली कु चेंस्वाणी
कंडाली कु साग
घत्वानी
पलिंगा की कफिली
राइ की कफिली
कफुलू कु कफुल्वानी
राइ कु साग
मूंगी कु इक्वान्याँ
आमू कु आमुल्वान्याँ
तुन्गुलों कि भुजी
गुरियल का कस्लों कि भुज्जी

**********
ये कुछ गढ़वाली खाना के नाम ही जो कि मैं और मेरे भाइयों/दोस्तों ने बड़ी मेहनत से ढूंढे हें आगे मैं इनके बारे में आप को विस्तृत जानकारी देता रहूँगा
**********


post scrap cancel

गढ़वाली जीवन (2) खान-पान

हमारी भाषा कि तरह हमारा खान पान भी बहुत ही विखर हुआ है लोग जहाँ जहाँ से आये अपने साथ अपना सारा भेष भूषा खान पान के तोर तरीके लाये और यहाँ आके आपस में ऐसे मिले ऐसे मिले कि कुछ अंदाजा नहीं लगा सकते प्रकृति के हिसाब से कुछ नए चीजों का, कुछ नए खान पान का भी जन्म हुआ पर मुझे मालूम नहीं आगे भविष्य में जरूर इस विषय पर चर्चा जारी रखूँगा गढ़वाली सभ्यता विलुप्त होने के कगार पर है ! अपने घर से सुरु होकर जब मैंने पाया की आज से २० साल पहले हमारे घर में जो खाना बनता था आज बहुत ही भिन्न है इसी लिए कुछ पुराने खाने को धुन्ड़ता टटोलता आप लोगों से रु बरु हो रहा हूँ मेरे बहुत सारे दोस्तों /भाइयों ने मेरी काफी मदद की है जिनमे सत्येंदर भंडारी ,कुकरेती जी,डी .डी. भाई , धनवीर भाई ,रणजीत भाई ,ललित भाई, महिपाल सिंह etc...

हिंदी के प्रभाव से बिलुप्त प्यारे शब्द ......

हमारी भाषा हिंदी भाषा से बहुत ही प्रभावित है खुसी भी होती है जब गाँव की ताऊ ताया टूटी फूटी हिंदी बोल के अपनी बात का प्रभाव ज़माने की कोशिस करते है तो बहुत ही अच्छा लगता है
और हाँ एक शब्द है "बल" कोई हिंदी बोले या गढ़वालीजब तक ये शब्द नहीं जोड़ते वाक्य पूरा नहीं होता ये गढ़वाली भाषा का बहुत मुख्या शब्द है हर वाक्य से पहले या बाद में "बल" नहीं लगाया तो गढ़वाली भाषा पूरी नहीं होती
कुछ गढ़वाली शब्द जिनके मुह से निकलते ही शारीर में झर झरी सी दोड़ जाती है ---

"तू"
घर , गाँव, मोहल्ले का कोई भी रिश्ता हो, कोई कितना भी बृध, कोई कितना भी बच्चा हो "तू" कहा कर पुकारते ही सारी दूरियां पल में ही सिमट जाती है दिल में एक अजीव सा अपना पन उभर आता है बहुत ही कर्ण प्रिय और भावुक शब्द हैं .....
" हला बाबा तू मैतेन पेंसिल नी लायें आज
माँ-ली तू खाणु नी दयानी मैतेन मैं बिजान भूका लगीं ,मैं अफ़ी गाड़ी दयां हां "
जब बचपन के ये मासूम से वाक्य आज भी मानस पटल पर उभरते हें तो इनकी आवाज मुझे दूर कहीं दूर से भी लाके घर के आँगन में पटक देती हें ....!!!!

परिचय ...गढ़वाली जीवन (1) भाषा

यहाँ मैं आप लोगों को गढ़वाली भाषा के बारे में जहाँ तक हो सकेगा पूरी पूरी जानकारी देने कि कोसिस करूँगा
सबसे पहले एक छोटी सी नजर गढ़वाल के विकास के इतिहास पर गढ़वाल कोई बहुत पुराणी सभ्यता नहीं है, मुझे याद नहीं या मालूम नहीं गढ़वाल के इतिहास को उठा के देखो तो गढ़वाली सभ्यता का आरम्भ तब सुरु हुआ था जब पश्चिम से मुग़ल शासकों का हिंदुस्तान पर आक्रमण होना सुरु हुआ था तब उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेशों से लोग पलायन करते हुए हिमालय कि पहाड़ियों पर बसना सुरु हुए ये बहुत ही सुरक्षित स्थान था क्यों कि हिमालय इसकी ढाल बन कर हमेसा ही रक्षा के लिए तत्पर था फिर कुछ लोग राजस्थान से कुछ पंजाब से कुछ सिंध से कुछ हिमाचल से और कुछ कश्मीर से पूर्बी उत्तराखंड तो जो कि कुमाऊ मंडल है नेपाल तिब्बत और उत्तर प्रदेश से लोग आ कर बसे है हमारा गढ़वाल कोई बहुत पुराना नहीं है ना ही हमारे पास हमारी कोई लिखित भाषा है और ना ही कोई एक निश्चित बोली यहाँ पर कदम कदम पर भाषा बदलती है और कदम कदम पर भूसा तभी तो गढ़वाली में एक कहावत भी मशरूर है "चार कदम पर भाषा बदले और आठ कदम पर भेस" हमारे यहाँ कोई शब्द पंजाबी से कुछ शब्द राजस्थानी से तो कुछ नेपाली से मिलते है
मूल रूप से हमारा उत्तरांचल गढ़वाल और कुमाऊ मंडल से मिल के बना है और भाषा का अंतर सबसे जादा यहीं से सुरु होता है गढ़वाल मंडल में गढ़वाली और कुमाऊ में कुमौनी दो मुख्या भाषाएँ ही दृश्य हें किन्तु अगर थोडा और गहरे में जाएँ तो गढ़वाल में ५ जिले है और हर जिले में भाषा भिन्न भिन्न है और यही स्थिती कुमाऊ में भी है तो लगभग १०-१२ भाषाएँ हमारे उत्तरांचल में बोली जाती हें हर ५० -७० मील में भाषा का बहुत अंतर है

Friday 23 July 2010

गढ़वाल में धान की रोपाई

सबसे बाड़ी बात ये है हमारे गढ़वाल में कि मशीनरी का उपयोग बहुत ही मुस्किल से कर सकते है खेती में जो कुछ है बस खून पसीने की कमाई है वक़्त कम पड़ जाता है पर काम ख़तम नहीं होते फिर रातें चुराओ ! है ना अजीब जिद्दो-जहद, पर जो कुछ है बहुत खूबसूरत है
हमारे गढ़वाल मी धान की रोपाई की खेती बड़े जोरों से होती है जून जुलाई का मोसम हर गाँव में खूब चहल कदमी का होता है हर गाँव में लोग घरों में कम खेतों में ही मिलते है सारा गाँव सामूहिक तरीके से परिवार दर परिवार रोपाई करता है बस मेला लगा रहता है पहले गधेरों में पानी भी बहुत होता था बरसा के पानी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था पर अब बहुत ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है ये बहुत ही सकून देना वाला द्रिश्य होता है जब दूर दूर तक लोग ही लोग नजर आते है मेरे शब्द भी कम हैं एस मनोहारी द्रिशांत का बर्णन करने के लिए ........!!!

Thursday 22 July 2010

आँगन की सान...... ओखली (उर्ख्यालू)

ओखली हर परिवार , हर घर के आँगन मी होती थी अब तो कुछ ही घर होंगे जिनके आँगन इस से सजे होंगे ओखली का हमारे गढ़वाली जीवन मी आदि काल से बहुत ही महत्वा रहा है जब चक्की नहीं हुआ करती थी तो धान, मंडुआ ,मसाले कुछ भी पावडर बनाना या छिलका निकलनाआदि काम इसी के द्वारा संपन होते थे यहाँ पर एक महिला हल्दी का पावडर बना रही हें

गढ़वाली रसोई

ये हमारे गढ़वाल की एक आदर्श रसोई है आज भले ही भले ही तरह -तरह के गैस स्टोव, बिजली के स्टोव, गोवर गैस स्टोव आदि खाना पकाने के कई साधन मोजूद हैं पर लकड़ी जला के चूले में खाना पकाना सदियों से चला आ रहा है यहाँ पर भी एक ग्रामीण महिला रोटियां पका रहीं हैं
और बिना स्कूल की बर्दी उतारे सीधे रसोई में खाना ढूढ़ना बाल जीवन का एक स्वाभाविक प्रविर्ति है और तो क्या बताऊँ पर मेरा बचपन कुछ यूँ ही गुजरा है आज भी जब वो दिन याद आते है तो आँखें छल- छला आती है कहाँ से लाऊ वो दिन फिर से .......!!!!

Monday 19 July 2010

नारियल का हुक्का

गाँव में ताऊ ताई दादा दादी सभी लोग पीते थे ( हम खुद पीते थे पर छुप-छुप के) अब कोई नहीं पीता गाँव में स्याम को अक्सर लोग चोपाल में, किसी के आँगन में कछाड़ी लगा गप्पे मारते और धुआं उड़ाते थे काम के साथ -२ भी तम्भाकू का मजा लेते थे

नारियल का हुक्का और घर के तम्भाकू की बात ही कुछ और है बचपन में ये सब्द हमारे कानो में अक्सर पड़ते थे बाबा (पापा)भी पीते थे और मैंने उनके लिए बहुत तम्भाकू बना बना के दिया है हमारे घर में एक नारियल का एक कांसे का हुक्का था सबसे बुरा तब लगता था जब उनको रखने के लिए घर में कोना ढुंडना पड़ता फिर बाबा एक हुक्का लाये जिसको कहीं भी रखो गिरता नहीं था सबसे जादा खुस मै था जब भी बाबा को तम्भाकू बना के देता १-२ सुट्टे तो मैं भी मारता था अंगारे सुलगाने थे ना !!!





बहुत पीसा है मैंने माँ के साथ जब मैंने होस संभाला है तो हमारे घर में ३ थी जो हलकी वाली थी उसमे डाले दलते थे और हम आसानी से घुमा भी सकते थे तो तो मैं और मेरा भाई एक दुसरे को बारी बारी से घुमाते भी थे खूब खेलते थे बड़ा मजा आता था कभी माँ आता पीसने बैठती थी तो माँ के हाथ से हाथ मिला कर २ मिनट के लिए जोर से घुमाते और फिर थक जाते माँ कहती हटो रे बच्चों क्यों परेशान कर रहे हो पर वो तो हमारे खेलने का खिलौना था पर अब कहीं नहीं दिखता मैं भी जब घर जाता हूँ तो मुझसे सिकायत भरी नजरों से घूरता रहता है मुझे पर मैं क्या करूँ जब वो दिन याद आते हें तो उसकी गग्राट से ही अक्सर हमारी नीद खुलती थी कितनी कथनी के दिन थे गाँव में अक्सर कूटने पीसने का काम रात को ही होता था बाकि दिन में तो और भी खेतों के काम होते थे

आटा पीसने की चक्की है (घट्ट)


ये धरोहर अब लुप्त होती जा रही हैं ..... ये पानी द्वारा चलने वाली आटा पीसने की चक्की है (घट्ट)४ -६ गाँव में १-२ घट्ट होते ही थे ...पर न अब पानी के नाले (गधेरे) रहे और न घट्ट .... रात रात भर घट्ट में रहना पड़ता था अपनी बरी आने के लिए दादी कहती थीं क्यों की दिन में तो काम होता था बहुत बस वहीँ पे खाना लेके जाओ खाओ और वही पर चादर बीचा के सो जाओ
पहले diesel engine की चक्की आई और अब बिजली की धीरे धीरे खेती से कुछ ना होने के कारन उनकी जरूरत भी ख़त्म होती जा रही है बस अब दुकान से ही सीधे आता चावल लाओ पकाओ और खाओ.......