Tuesday 28 September 2010

पितृ पक्ष या श्राद्ध ..एक नजर .....



हमारे गढ़वाल में श्राद्ध बहुत ही लगन से मनाये जाती है १६ दिन के श्राद्ध में पूरी रीति, बरजन, पुरे नियम से सभी मानते है ब्राहमण पत्ड़े (पंचांग) देख कर निर्धारित करता था की दादा का श्राद्ध कब आया है और दादी का कब फिर मैं दोड़ा-दोड़ा पंडित जी के घर जाता था और पता कर के आता था फिर सब तैयारियों में लग जाते थे और जिस दिन श्राद्ध आता था बड़े ही उत्साह से हमारी मोज होती थी खाने को खीर पकोड़ी बनती थी घर में सब बरत रखते थे पर मैं नहीं ...
न दादा को देख पाया था और न दादी को बस जो कुछ सुना था माँ और पापा से ही सुना था बस उनकी आँखों के द्वारा वे हमारे मन मंदिर में आज भी हैं कोई तश्वीर नहीं है पर वे विधमान हैं हर साल श्राद्ध में फिर उनकी सारी ,यादें सारे किस्से ताजा हो जाते हैं बस ये श्राद्ध ही है जो हमे उनसे जोड़े हुए है पापा को देख कर लगता था की वे भी अपने पापा के आज बहुत करीब हें उनके मुख मंडल पर एक मुस्कान एक तृप्ति एक संतुष्टि दिखती थी और लगता था आज परिवार में दो और सदश्य जुड़ गए हैं ।
फिर पूजा पाठ के बाद ब्रामण के अनुसार पितरों को भोज दिया जाता था जो की कूड़े [माकन ]की मुंडेर पर रखा जाता है ब्राहमण की विदाई के बाद सब साथ में भोज करते हैं और मुंडेर पर कोवों का जमघट लग जाता था घर में सब लोग खुश की आ गए वो लोग भी खाने ।
एक बात तो बताना भूल हिगाया हमारे गढ़वाल में कागा [कोवा ] को पितृ माना जाता है ना कोई कभी कोवा को मरता है और ना उडाता है बल्कि जब आँगन में आता है तो उसे कुछ ना कुछ खाने को दिया जाता है
घर में मेहमान और किसी के आने की खबर भी sअबसे पहले वही लाता है आज भी ......

Saturday 4 September 2010

झंगोरा ......(गढ़वाल का चावल )

आज आपलोगों को झंगोरे की भरपूर जानकारी देने की कोसिस करूँगा
ललित भाईजी आप ने पिछली टिपण्णी में कहाथा की उसे चावल की तरह पकाते है तो वो ये आनाज है ।
रोटी बना कर खाने वाला कोदा दूसरा आनाज है
और सही बात है की सुगर के मरीजों को इसी को खाने की राय दी जाती है
और जब दिल्ली रहता था तो पता चला इस कों सांवा के चावल के नाम से लोग जानते है ....
और स्पेसली ब्रत में इसको पका के खाते है ।
ये हमारे गढ़वाल का मुख्य आहार है बस यूँ समझ लीजिये की गढ़वाल का चावल है इसके पीछे कई कारन हैं । गढ़वाल का मोसम इसकी खेती के लिए बहुत अनुकूल है इसकी उपज बहुत होती है सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती सुखी खेती होती है आपको बतादूँ की गढ़वाल में कुछ धान ऐसी भी है जिसकी सुखी खेती होती है तो झंगोरे को इसी के साथ बोया जाता है
आप को आश्चर्य होगा की खेत जहाँ पर उपजाऊ नहीं है या पथरीला है, खेत के किनारों पर झंगोरा बो देते है अच्छी अच्छी जगह पर धान बोते हैं ।
पर होते समय झंगोरा जादा होता है धान कम .......
इसकी खेती अप्रैल में बुआई और सितंबर लास्ट में कटाई होती है ....
और हाँ इस बात का जिक्र जरूर करूँगा की इसे भी कोदे की तरह सेत करने रख देते हैं फिर सर्दियों में कूटते है खलिहान में या तो बैलों को घुमाते है या लाठों से कूटते हैं ।


अभी आप देख रहे है की दूसरा अनाज

....कोणी ...

ये भी झंगोरे की ही प्रजाति है । ....
और ये अनाज सदियों से सिर्फ खिचड़ी के लिए ही मशहूर है, खिचड़ी के लिए ही उगाया जाता है ...और इसकी खिचड़ी ही बन सकती है .....
वीमार लोगों के लिए इसकी खड़ी राम बाण (औषधि ) सिद्ध होती है । .......
झंगोरे का दाना छिक्कल के साथ ग्रे रंग का और कूटने पर सफ़ेद होता है और कोणी का दाना पीला होता है .....

मेरी पिछली पोस्ट (कुछ नाम सुनते ही मुह में पाणी आ जाता है ....) आप ने पढ़ी ना हो तो
आप कों बाता दूँ की मेरी जानकारी में झंगोरे से जो व्यंजन बनते है ये हैं । .....
१ ...झंगोरू ...(चावल की तरह )
२ ... छेंछेड़ू (एक ला जवाब व्यंजन)
३ ...मीठी खीर (दूध के साथ )
४ ... कोणी की खिचड़ी के बारे में तो आप जान ही चुके हैं ....

अब कविता दीदी के शब्दों में कहूँ तो कोणी की खिचड़ी से स्वाद रोटी में होता ही पर मुझे मोका नहीं मिला खाने का आप को मिले तो जरूर खायियेगा ।

Friday 3 September 2010

मंडूवा या कोदा या कोदू ...

आगे बढ़ने से पहले मैं अपने पिछले पाठकों के प्रश्नों का उतर दूँ यही मुनासिब रहेगा क्योकि आप की जिज्ञासा ही मेरी लेखनी की ताकत है
तो मंडूवे की रोटी तो आप लोगों ने देख ली और इसका स्वाद आप मेरी भावनाओं के जरिये ले सकते है मंडूवा या गढ़वाली में कोदा एक ही बात है अप्रवासी गढ़वाली बच्चों को गर्मियों की छुट्टी में मटकते हुए कहते सुना की "दादी एक मंडूये की रोटी देना .....! बस तब से मैं भी यही जनता हूँ की हिंदी में लोग इसे मंडूवा कहते हैं
बहुत ही सादा और गढ़वाल का मुख्य अनाज है इसका दाना राइ के दाने की तरह होता है (किन्तु थोडा सा चमकीला और बारीक लाली लिए हुए ) पीसने पर हलके काले रंग का आटा होता है और उपयोग बिलकुल गेहूं के आटे की तरह होता है ......रोटियां बनती हैं, प्रसाद बनता है {(हलुवा....हिंदी में)या (बाड़ी ...गढ़वाली में)}बहुत ही स्वादिस्ट !!!
यूँ कहूं की जब गढ़वाल में लोग कुछ नहीं जानते थे तब हर गाँव के हर घर में हर सुबह, दोपहर और स्याम कोदा और झंगोरा दोनों में से क्या पकाना है तय होता था और सब्जी दाल तो अलग से बने गी ही .......
गेहूं का बिकल्प कोदा और चावल का बिकल्प झंगोरा यही गढ़वाल का सत्य है ........
आज दुकाने है, गेहूं है, चावल है, सड़कें हैं याता-यात के साधन हैं ......
पापा बताते हैं की ऋषिकेश तक का पैदल मार्ग था एक बार जाने में ३ दिन लगते थे और सामान जादा है तो ४ दिन ...... जो की हमारे घर से आज १०५ किलो मीटर है (बस से )
और लेन वाला सामान ऋषिकेश से था नमक,गुड , और चाय पत्ति बाकि सब खेती से होता था ...

गढ़वाल में खेती की हो या सिंचाई की हो कोई भी कृत्रिम विधि उपयोग करना बहुत मुस्किल है बस सब बर्षा के पाणी पर ही निर्भर है
अब रही कोदा की खेती की बात तो बिलकुल आसन है और विचित्र भी...वो इस लिए की जब बुताई के समय बाकि और फसलों के लिए खेत की नमी का विशेष ध्यान रखा जाता है तो कोदा के खेत में इतनी धुल उडती है की ना बैल दीखते है और ना ही आदमी ...सारा सशीर धुल से लत पत ...........मुझे बड़ा मजा आता था
इसकी बूआई जून में और कटाई नोवेंबर मध्य में होती है ५ महीने में फसल तैयार और फिर इसे काट के सीधे स्टोर (सेत) कर दिया जाता है और फिर सर्दियों में फुर्सत से इसको छांटा जाता है क्योंकि ठीक उसी समय दूसरी फसलें जैसे धान की, उरद दाल की, चोलाई की, सोयाबीन की, और सु प्रसिद्ध झंगोरा की भी पक के तैयार हो जाती हैं ....
और जाते जाते विश्वाश दिलाता हूँ की जब गाँव जाऊंगा तो आप सभी पोस्टों को मेरे खुद के चित्रों से सुसोभित पावोगे फरवरी में आ रहाहूँ इंडिया ......
झंगोरा के विषय में अगली पोस्ट में विस्तार से बताऊंगा ........
पढना ना भूलियेगा .........