Tuesday 27 July 2010

गढ़वाली जीवन (2) खान-पान

हमारी भाषा कि तरह हमारा खान पान भी बहुत ही विखर हुआ है लोग जहाँ जहाँ से आये अपने साथ अपना सारा भेष भूषा खान पान के तोर तरीके लाये और यहाँ आके आपस में ऐसे मिले ऐसे मिले कि कुछ अंदाजा नहीं लगा सकते प्रकृति के हिसाब से कुछ नए चीजों का, कुछ नए खान पान का भी जन्म हुआ पर मुझे मालूम नहीं आगे भविष्य में जरूर इस विषय पर चर्चा जारी रखूँगा गढ़वाली सभ्यता विलुप्त होने के कगार पर है ! अपने घर से सुरु होकर जब मैंने पाया की आज से २० साल पहले हमारे घर में जो खाना बनता था आज बहुत ही भिन्न है इसी लिए कुछ पुराने खाने को धुन्ड़ता टटोलता आप लोगों से रु बरु हो रहा हूँ मेरे बहुत सारे दोस्तों /भाइयों ने मेरी काफी मदद की है जिनमे सत्येंदर भंडारी ,कुकरेती जी,डी .डी. भाई , धनवीर भाई ,रणजीत भाई ,ललित भाई, महिपाल सिंह etc...

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