Friday 3 September 2010

मंडूवा या कोदा या कोदू ...

आगे बढ़ने से पहले मैं अपने पिछले पाठकों के प्रश्नों का उतर दूँ यही मुनासिब रहेगा क्योकि आप की जिज्ञासा ही मेरी लेखनी की ताकत है
तो मंडूवे की रोटी तो आप लोगों ने देख ली और इसका स्वाद आप मेरी भावनाओं के जरिये ले सकते है मंडूवा या गढ़वाली में कोदा एक ही बात है अप्रवासी गढ़वाली बच्चों को गर्मियों की छुट्टी में मटकते हुए कहते सुना की "दादी एक मंडूये की रोटी देना .....! बस तब से मैं भी यही जनता हूँ की हिंदी में लोग इसे मंडूवा कहते हैं
बहुत ही सादा और गढ़वाल का मुख्य अनाज है इसका दाना राइ के दाने की तरह होता है (किन्तु थोडा सा चमकीला और बारीक लाली लिए हुए ) पीसने पर हलके काले रंग का आटा होता है और उपयोग बिलकुल गेहूं के आटे की तरह होता है ......रोटियां बनती हैं, प्रसाद बनता है {(हलुवा....हिंदी में)या (बाड़ी ...गढ़वाली में)}बहुत ही स्वादिस्ट !!!
यूँ कहूं की जब गढ़वाल में लोग कुछ नहीं जानते थे तब हर गाँव के हर घर में हर सुबह, दोपहर और स्याम कोदा और झंगोरा दोनों में से क्या पकाना है तय होता था और सब्जी दाल तो अलग से बने गी ही .......
गेहूं का बिकल्प कोदा और चावल का बिकल्प झंगोरा यही गढ़वाल का सत्य है ........
आज दुकाने है, गेहूं है, चावल है, सड़कें हैं याता-यात के साधन हैं ......
पापा बताते हैं की ऋषिकेश तक का पैदल मार्ग था एक बार जाने में ३ दिन लगते थे और सामान जादा है तो ४ दिन ...... जो की हमारे घर से आज १०५ किलो मीटर है (बस से )
और लेन वाला सामान ऋषिकेश से था नमक,गुड , और चाय पत्ति बाकि सब खेती से होता था ...

गढ़वाल में खेती की हो या सिंचाई की हो कोई भी कृत्रिम विधि उपयोग करना बहुत मुस्किल है बस सब बर्षा के पाणी पर ही निर्भर है
अब रही कोदा की खेती की बात तो बिलकुल आसन है और विचित्र भी...वो इस लिए की जब बुताई के समय बाकि और फसलों के लिए खेत की नमी का विशेष ध्यान रखा जाता है तो कोदा के खेत में इतनी धुल उडती है की ना बैल दीखते है और ना ही आदमी ...सारा सशीर धुल से लत पत ...........मुझे बड़ा मजा आता था
इसकी बूआई जून में और कटाई नोवेंबर मध्य में होती है ५ महीने में फसल तैयार और फिर इसे काट के सीधे स्टोर (सेत) कर दिया जाता है और फिर सर्दियों में फुर्सत से इसको छांटा जाता है क्योंकि ठीक उसी समय दूसरी फसलें जैसे धान की, उरद दाल की, चोलाई की, सोयाबीन की, और सु प्रसिद्ध झंगोरा की भी पक के तैयार हो जाती हैं ....
और जाते जाते विश्वाश दिलाता हूँ की जब गाँव जाऊंगा तो आप सभी पोस्टों को मेरे खुद के चित्रों से सुसोभित पावोगे फरवरी में आ रहाहूँ इंडिया ......
झंगोरा के विषय में अगली पोस्ट में विस्तार से बताऊंगा ........
पढना ना भूलियेगा .........

4 comments:

  1. कोदा शायद हमारे यहां होने वाले कोदो को ही कहते हैं। इसको चावल जैसे पकाते हैं। राई के दानों जैसा होता है जिसे कूट कर उसके छिलके निकाल लिए जाते हैं। आज कल इसका उपयोग शुगर के मरीजों के लिए हो रहा है। जिन्हे चावल खाने की मनाही है।
    हां इसकी रोटी मैने नहीं खाई है, जब हमारे खेतों में कोदो होता था तो कभी शौक से खाया था। अभी तो बहुत दिन हो गए खाए।

    जानकारी देने का आभार

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  2. धर्म सिंह जी मैं कुमाउनी हूँ. जिसे आप कोंदा कह रहे हैं कुमाउनी भाषा में उसे मडुआ ही कहते हैं और जिसे आप झंगोरा कह रहे हैं उनसे कुमाउनी में झुंगर कहा जाता है. भाषा में थोडा बहुत अंतर हो सकता है पर बाकि जीवन चर्या और दूसरी चीजे एक ही हैं. आपकी चित्रों भारी पोस्ट का इंतजार रहेगा.

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  3. अच्छी जानकारी गढवाल की फसलो की .उनकी तासीर की |बिलकुल अलग सा ब्लॉग |

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