
हमारे गढ़वाल में श्राद्ध बहुत ही लगन से मनाये जाती है १६ दिन के श्राद्ध में पूरी रीति, बरजन, पुरे नियम से सभी मानते है ब्राहमण पत्ड़े (पंचांग) देख कर निर्धारित करता था की दादा का श्राद्ध कब आया है और दादी का कब फिर मैं दोड़ा-दोड़ा पंडित जी के घर जाता था और पता कर के आता था फिर सब तैयारियों में लग जाते थे और जिस दिन श्राद्ध आता था बड़े ही उत्साह से हमारी मोज होती थी खाने को खीर पकोड़ी बनती थी घर में सब बरत रखते थे पर मैं नहीं ...
न दादा को देख पाया था और न दादी को बस जो कुछ सुना था माँ और पापा से ही सुना था बस उनकी आँखों के द्वारा वे हमारे मन मंदिर में आज भी हैं कोई तश्वीर नहीं है पर वे विधमान हैं हर साल श्राद्ध में फिर उनकी सारी ,यादें सारे किस्से ताजा हो जाते हैं बस ये श्राद्ध ही है जो हमे उनसे जोड़े हुए है पापा को देख कर लगता था की वे भी अपने पापा के आज बहुत करीब हें उनके मुख मंडल पर एक मुस्कान एक तृप्ति एक संतुष्टि दिखती थी और लगता था आज परिवार में दो और सदश्य जुड़ गए हैं ।
फिर पूजा पाठ के बाद ब्रामण के अनुसार पितरों को भोज दिया जाता था जो की कूड़े [माकन ]की मुंडेर पर रखा जाता है ब्राहमण की विदाई के बाद सब साथ में भोज करते हैं और मुंडेर पर कोवों का जमघट लग जाता था घर में सब लोग खुश की आ गए वो लोग भी खाने ।
एक बात तो बताना भूल हिगाया हमारे गढ़वाल में कागा [कोवा ] को पितृ माना जाता है ना कोई कभी कोवा को मरता है और ना उडाता है बल्कि जब आँगन में आता है तो उसे कुछ ना कुछ खाने को दिया जाता है
घर में मेहमान और किसी के आने की खबर भी sअबसे पहले वही लाता है आज भी ......